दूरी

मुझ तक नहीं आती है
कभी कोई ढाढ़स की आवाज़ 
अपना ढाढ़स होने को मुझे ही औरों का ढाढ़स होना पड़ता है


जिस जिस तक मैं पहुँची
वो सब मेरे खुद तक पहुँचने के ही उपक्रम थे


मेरा आसमान 
इतना भींगा था कि सूखे का भ्रम होता था 
पलकों में मीठी नींदों का सपना सोता था


और मैं जागती रह जाती थी


कि चैन की नींद सो पाऊँ 
ऐसा होने में आकाश भर आशंकाएं तैरती थीं 


मेरी खुद से अभी आकाश भर की दूरी थी।


-अनुपमा

"लौ दीये की" में संकलित

●●●

पुस्तक का लिंक

https://shwetwarna.com/shop/books/lau-diye-ki-anupama/

8447540078 श्वेतवर्णा प्रकाशन के इस नंबर पर संपर्क करके भी पुस्तक मंगायी जा सकती है।




लौ दीये की : कविता संग्रह

निष्प्राण माटी सी थी भाव-लता


कविता के अवलंब ने 
भाव-लता को 
सुदृढ़ आधार दिया 


माटी का दीया रूप साकार किया 
और स्वयं लौ-सी प्रज्वलित हो उठी।


दीये की गरिमा लौ से है 
कि बुझे दीप की गति तो श्मशान ही है।


जब तक लौ है 
तब तक दीया अपने आप में 
अपनी ज़मीं अपना आसमान भी है।


ये जो, कविताएँ या कविता-सा-कुछ, जो भी है  
ये ही हासिल मेरे जीये की 
लौ दीये की।


मेरा पहला कविता संग्रह "लौ दीये की" बीते दिसम्बर प्रकाशित हुआ। आज बहुत समय बाद अनुशील तक लौटी तो सोचा रचनात्मक यात्रा का यह पड़ाव यहाँ भी दर्ज कर लूँ। यहाँ जहाँ डायरी में छूट गयी कविताओं को लिखने का सिलसिला शुरू हुआ था और आप सब के शब्दाशीश पा धन्य होता रहा था।

"लौ दीये की" किसी एक राही के मन का भी सुकून हो सके, किसी एक पाठक के लिए भी अंधेरा दूर करने का सबब हो सके तो इस पुस्तक के अस्तित्व में आने की प्रक्रिया सार्थक हो जाएगी।

कविताओं को अब उनकी अपनी यात्रा और उनका अपना आसमान मुबारक। मैं कहीं नेपथ्य से उस लौ को एकटक देखती स्वयं लौ होने की राह में अपनी तरह से अपना रास्ता तय करती रहूँगी।

-अनुपमा 


 

पुस्तक का लिंक

https://shwetwarna.com/shop/books/lau-diye-ki-anupama/

पुस्तक प्रकाशक के इस नम्बर  +91 8447540078 पर सम्पर्क कर के भी प्राप्त की जा सकती है। 



भावांजलि : सलाम, अपराजिता शर्मा

जो एकाएक उठ कर चल देते हैं बस 

इस धराधाम से 
असमय 
वो कितना विराट शून्य छोड़ जाते हैं पीछे।


पर,

यह भी है 
कि हम कौन होते हैं ये कहने वाले 
कि वे असमय चले गए 


हो सकता है 
यही यथेष्ट समय हो
यही सबसे उचित मुहूर्त हो 
जिसमें 
आत्मा ने अपना प्रस्थान चुना हो 


कौन जाने !


हम जहाँ हैं वहीं से
उस आत्मा की आगे की यात्रा के लिए 
प्रार्थनारत हो लें 


जिस सकारात्मकता की वो प्रतीक थीं 
उसी सकारात्मक ऊर्जा के साथ 
उन्हें विदा किया जाए 


उनके साथी 
उनकी जननी 
उनका परिवार 
उनके अपने 
और हम सब उन्हें ख़ूब शुभकामनाओं के साथ विदा करें 
कि वह चैतन्य आत्मा अपनी आगे की यात्रा 
असीम शांति के साथ तय कर सके!


विजयदशमी के पावन दिवस 
सौभाग्यवती गयीं वे 
जैसे देवी ने नियत दिन चुना हो अपने प्रस्थान के लिए 


यह विदा 
भौतिक स्थूल शरीर का सत्य है मात्र 


आदि शक्ति कभी विदा होती नहीं 
वो तो बस 

उनकी प्रतिकृति 
उनकी प्रस्तर प्रतिमा 
विसर्जित की जाती है 


अपराजिता को तो संभाल कर रख लिया जाता है पूजा घर में 


शरीर की विदाई है यह 
आत्मा अजर अमर है 


वो कहीं नहीं गयी 
कहीं नहीं जाएगी !


-----------

अपराजिता जी, आपकी कला दुनिया रहते इस जगत का हिस्सा रहेगी और अलबेली दिग्दिगंत तक अमर।

सलाम आपकी यादों को।


प्रार्थनाएँ शोक संतप्त परिवार के लिए!





शुभ संकल्प सा हृदय में राम आए

बुराई पर जीतती अच्छाई 
जीवन में 
संकल्पों का 
वह ताना बाना बुने 


कि 
हम उद्धत हों जाएँ 
अपने अपने भीतर के रावण को 
परास्त करने के लिए 


दीप जलें 
हृदय सुमन खिले


मन में ऐसा उत्सव हो 
कि दुःख समग्र आप्लावित हो जाए 
सुख अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ 
जीवन में संस्कारित हो पाए।


-अनुपमा 

१५।१०।२०२१


सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

सुख है

एक बूँद आँसू 
एक व्यथा समंदर भर 


एक क्षण की कोई बात 
जो न भूले मन जीवन भर 


ऐसे कैसे-कैसे घाव समेटे 
हम जीते हैं 
जीते हुए घूँट ज़हर के 
कितने हम पीते हैं 


मन में जाने कैसा 
पर्वताकार दुःख है 
अब धीरे-धीरे उसी को 
कहने लगे हम-


सुख है !


मन मौसम

बूँदों का मोक्ष है
बारिश


बादलों के
मिट जाने की चाह की पुष्टि है
बारिश


आकाश का अलंकार
और धरती का संस्कार है बारिश


दुःख की सपाट राह में
सुख की जरा सी नमी है बारिश।

आने वाले कल के लिए

ये
अनिश्चित-से
काश और शायद सरीखे शब्दों की ही महिमा है
कि हम चलते चले जाते हैं
उन मोड़ों से भी आगे
जहाँ से आगे की कोई राह नहीं दिखती 


ये शब्द सम्भावनाओं का वो आकाश हैं
जो घिरे हुए बादलों के बीच भी
चमक उठते हैं
अपनी रौ में!


एक आशा है
जो जिलाए रखती है
अंधकार के घोर प्रपात में 


हम दामन में
एक मुस्कान बचाए रखते हैं
तब भी जब कुछ भी नहीं होता अपने हाथ में 


मन की चंचलता
उठते-गिरते
अपने लिये
मन-भर आकाश गढ़ लेती है


जिसमें
नए सिरे से
सूरज चाँद टाँक
समय की गति के गूढ़ार्थ पढ़ लेती है!


इस ब्लॉग के बारे में

"कुछ बातें हैं तर्क से परे...
कुछ बातें अनूठी है!
आज कैसे
अनायास आ गयी
मेरे आँगन में...
अरे! एक युग बीता...
कविता तो मुझसे रूठी है!!"

इन्हीं रूठी कविताओं का अनायास प्रकट हो आना,
"
अनुशील...एक अनुपम यात्रा" को शुरुआत दे गया!

ब्लॉग से जुड़िए!

कविताएँ